बहुत संभव है कि आपने परधान आदिवासी समुदाय का नाम न सुना हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह समुदाय खुद भी अपने आपको गोंड आदिवासी समुदाय का ही मानता आया है। गोंड आदिवासी समुदाय वही है, जो एक वक्त पर मध्य भारत के महाकौशल वाले हिस्से का शासक था। रानी दुर्गावती और मंडला के किले का इतिहास, गोंड शासकों के ही वैभव का इतिहास है।
बहरहाल, परधान समुदाय गोंड समुदाय का ही एक हिस्सा है। इनकी तादाद भले ही गोंड समुदाय की अन्य उपजातियों से कम हो, लेकिन इनका महत्व कहीं अधिक रहा है। गोंड शासकों और समुदाय की वंशावली का ध्यान रखना, गीत-संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाना और इतिहास लेखन करना। ऐसे सारे काम गोंड शासकों ने परधान समुदाय को सौंप रखे थे। परंतु गोंड साम्राज्य के पतन होते ही परधानों ने खुद को विचित्र स्थिति में पाया। सामाजिक स्थिति में परधान गोंडों से नीचे थे। यूं समझ लीजिए की उन पर ही आश्रित थे। यही वजह थी कि गोंड शासन खत्म होने के कुछ अरसा बाद वे सामान्य मेहनती जीवन में लौट आए। उनमें बिखराव आया। वे देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग काम में जुट गए। इसके बावजूद मध्य प्रदेश का मंडला, जबलपुर व डिंडोरी जिला और महाराष्ट्र का अमरावती व उसके आस पास का इलाका परधानों का क्षेत्र बना रहा। गीत-संगीत के प्रति उनका लगाव भी बदस्तूर बना रहा।
परधान समुदाय के बीच लंबे समय तक काम करने और एक परधान कन्या से विवाह करने वाले ब्रिटिश नृविज्ञानी वेरियर एल्विन कहते हैं, “एक जमाने में परधान समुदाय को चोरी की प्रवृति के लिए जाना जाता था।” यह सुनते ही एकबारगी मन में सवाल उठता है कि यह समुदाय आपराधिक अतीत वाला तो नहीं था। फिर किस बात ने इन्हें चोरी की ओर प्रेरित किया? एल्विन कहते हैं कि हिंदू और मुसलमानों के आक्रमण से इनकी आजीविका संकट में आने लगी थी। आक्रमणकारी इनके खाने-पीने की चीजें छीन ले जाते थे। उसी दौर में अकाल पड़ा और परधान जनजाति दाने-दाने के लिए मोहताज हो गई। तब समुदाय के कुछ लोग बकरी और मुर्गियों को चुराने में रुचि लेने लगे। हालांकि, कुछ अरसा बाद उन्होंने खुद यह काम छोड़ दिया। परधान समुदाय आज मध्य भारत के सबसे प्रतिष्ठित और कानून का पालन करने वाले समुदाय में एक है।
परधान समुदाय में भी कई उपजातियां और विचित्र परंपराएं रही हैं, जो कालांतर में समाप्त हो गईं। धुर्वे-धुर्वे नाम धूल या धूर से निकला है। ये पांच देवों की उपासना करने वाले परधान हैं। इन देवों के नाम हैं- दुल्हा देव, दुलखोरिया देव, नारायण देव, रत माई और बड़ा देव। धुर्वे की एक उपजाति पखमुत्ता है। इस उपजाति के लोग कोई भी नया काम या बलिदान करने के पहले खड़े होकर दीवार पर पेशाब किया करते थे। वहीं नंदोलिया उपजाति एक है। इस उपजाति के लोगों में साज के पत्तों का थैला बनाकर घर में रखने की परंपरा थी। यह थैला उनके चमड़े के काम का प्रतीक था।
कुमरा परधान बकरी पालते थे। बकरी उनके लिए कुल देवी के रूप में पूज्य है। वे कभी बकरी या बकरे का मांस नहीं खाते। इसके पीछे लोक-कथा यह है कि एक बार एक कुमरा ने एक बकरी चुरा ली, फिर उसे मार दिया। वह बड़ा देव को बकरी का सिर चढ़ा रहा था, तभी पुलिस आ गई। उस कुमरा ने बड़ा देव से अनुनय करते हुए कहा कि यदि आप सचमुच भगवान हैं तो इस बकरी के सिर को सुअर के सिर में बदल दें। जब पुलिस वहां पहुंची तो उसने बकरी की जगह मरा हुआ सुअर पाया। तभी से कुमरा ने बकरी खाना बंद कर दिया, लेकिन इस लोककथा से यह बात भी सामने आई कि वे सुअर का मांस खाते रहे होंगे।
खुसरो परधान बाघ को कुल देवता मानते हैं। इस समुदाय की महिलाएं जंगल जाते समय अपने सिर पर पल्लू रखती हैं। वे ऐसा इसलिए करती हैं, क्योंकि बाघ को अपना जेठ मानती हैं। इस समुदाय में बाघ से मुलाकातों के अनेक दिलचस्प किस्से हैं। जब किसी खुसरो लड़की का विवाह होता है तो दुल्हा-दुल्हन के सामने लड़की के पिता या भाई में से किसी एक पर बाघ की सवारी आती है। उसके सामने अगर बकरी पेश की गई तो वह उसे अपने दांतों से चीर कर मार देता है। सुअर के साथ भी यही परंपरा है, लेकिन उसे दांतों से चीरना संभव नहीं होता, इसलिए परंपरा पालन करते हुए उसे चाकू से मारा जाता है। इसका भोग लगाया जाता है। इसी तरह मरकाम उपजाति आम के वृक्ष की पूजा करती है। यह उपजाति परधान के अलावा अगरिया और बैगा आदिवासियों में भी पाई जाती है।
परधान समुदाय को उसके हास्यबोध की वजह से समस्त आदिवासी समुदाय में नाम हासिल है। गोंडों का इतिहास लिखने वाले मंडला के इतिहासकार रामभरोस अग्रवाल लिखते हैं, “गोंड समुदाय को हंसाने का दायित्व परधानों पर ही था, लेकिन उनके हास्यबोध में अश्लीलता का दूर-दूर तक कोई पुट नहीं होता था।” एल्विन ने परधानों के हास्यबोध के कई किस्से दर्ज किए हैं। परधान समुदाय के एक व्यक्ति से उन्होंने कहा कि उसे, उसकी पत्नी और बच्चों को दूध पीना चाहिए। इस पर उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि एक भैंस का गुलाम बनने से अच्छा है कि बिना दूध के रह लिया जाए। आगे उसने कहा, “जब एक व्यक्ति भैंस खरीदता है तो वह सोचता है कि वह भैंस ले रहा है, जबकि भैंस सोचती है कि वह एक नौकर खरीद रही है।”
अन्य आदिवासी समुदायों की तरह ही परधान समुदाय की महिलाओं को पूरी आजादी हासिल थी। उनकी स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता इस हद तक थी कि परधान समुदाय के पुरुषों का जीवन अक्सर इस आशंका में बीतता था कि कहीं उनकी पत्नी उसे छोड़कर न चली जाए! इस बाबत एल्विन कहते हैं कि परधान स्त्रियों में विवाह और प्रेम संबंधों को लेकर एक तरह का सहज वातावरण है। एल्विन ने यह भी बताया कि कई परधान युवाओं उनसे निजी बातचीत में स्वीकार किया है कि उन्हें हिन्दू पुरुषों से ईर्ष्या होती है, क्योंकि हिंदुओं में विवाह को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना जाता है। हिंदू स्त्रियां अपने पति को छोड़कर नहीं जाती हैं, जबकि उन्हें हमेशा यह डर सताता रहता है। जानकार यह भी बताते हैं कि परधान समुदाय अन्य आदिवासी समुदाय की तुलना में श्रृंगार रस में दक्ष होते हैं। परधान लोक साहित्य में ऐसे तमाम वर्णन मिलते हैं, जिससे इन बातों को समझा जा सकता है। परधान आदिवासी स्त्रियों की स्वच्छंद का पुरुष वर्ग गलत नहीं मानता था। वह उनके अधिकार और इच्छा का सम्मान करता था। इस समाज के स्त्री और पुरुष आपसी सहमति से ही अलग होने का निर्णय लेते थे।
परधान समुदाय का खानपान हमेशा से मांस-मदिरा और शाकाहार का मिश्रण रहा है। मंडला जिले के लगभग सभी परधान बहुल गांव में लोगों के घर शराब बनाने की कलारी देखने को मिलती है। जहरमऊ ऐसा ही एक गांव है। गांव के लोगों के मुताबिक यहां हर घर में शराब बनती है। मांसाहार में अधिकतर परधान बकरे का मांस नहीं खाते हैं, क्योंकि वह उनके कुल देवों में आते हैं। इसके अलावा पारंपरिक रूप से मुर्गा उनकी रुचि का आहार है। हालांकि, आधुनिकता ने उस पर भी असर डाला है। शहरी संस्कृति के प्रभाव से परधानों में अपनी व्यक्तिगत अस्मिता को लेकर सोच कम हुई है। खान-पान बदला है। मंडला में कई ऐसे परधान परिवार मिले, जो खुद को आदिवासी नहीं मानते हैं। वे स्वयं को हिंदू बताते हैं। कइयों ने मांस खाना भी त्याग दिया है, क्योंकि वे यह समझते हैं कि इससे उनका पिछड़ापन झलकता है और वे पुराने विचार वाले नजर आते हैं। परधान समुदाय से ताल्लुक रखने वाले युवा अशोक मरावी कहते हैं, “परधानों में मरे हुए जानवरों का मांस खाने का चलन था, जो अब समाप्त हो गया है। यह काम करने वाले लोगों ने अब दूसरे व्यवसाय अपना लिए हैं, क्योंकि इसका असर उनकी सामाजिक छवि पर भी पड़ता था।”
परधानों के शाकाहारी भोजन का विवरण भी दिलचस्प है। वे पारंपरिक तौर पर चकौड़ा भाजी, बांस की कोपलों का साग, लोई भाजी, कोदो कुटकी आदि खाते रहे हैं। इनमें से कई ऐसे साग हैं, जो पारंपरिक खेती की बजाय यूं ही आस-पास में उग आया करते थे। लेकिन आधुनिक बनने की चाह में यह खान-पान उनसे पीछे छूट गया है। पीडीएस व्यवस्था के चलते गेहूं और चावल ने बाकी अनाजों का स्थान ले लिया है। इससे उनकी पारंपरिक पोषण व्यवस्था पर असर पड़ा है। आज परधान समुदाय डायबिटीज और उच्च रक्तचाप जैसी जीवन-शैली आधारित बीमारियों के प्रभाव में आते दिखाई दे रहे हैं। सरकार मोटे अनाजों को पीडीएस में शामिल करने की योजना अवश्य बना रही है, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है।
मंडला जिले के टिकरी टोला में करीब 500 परधान परिवार निवास करते हैं। वहां हमें दो कुपोषित बच्चे मिले। इनके कुपोषण की वजह एक बड़ी समस्या की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है। बच्चों के माता-पिता प्रवासी मजदूर हैं। वे काम के सिलसिले में अधिकांश समय बाहर रहते हैं। उनके बच्चों का नामांकन न तो गांव की आंगनबाड़ी में है। न ही शहर में उनका कोई स्थायी ठिकाना। ऐसे में उनके बच्चों में पोषण की समस्या बढ़ गई है, जो लाजिमी है। राज्य और केंद्र सरकार ने ऐसे बच्चों के लिए क्या व्यवस्था लेकर आई है, इसकी जानकारी यहां किसी को नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार को चाहिए कि ऐसे घुमंतू बच्चों के पोषण पर ध्यान दे।
परधान संस्कृति का अध्ययन करने वाले मशहूर मानव विज्ञानी शामराव हिवाले कहते हैं कि परधान संस्कृति में सुअरों का बहुत महत्व है। शायद शराब के बाद वे सबसे ज्यादा प्रेम सुअर से ही करते हैं। इसकी वजह यह है कि सुअर सबसे सस्ता जानवर है, जिसे वे खरीद सकते हैं। यह निशुल्क सफाई भी करता है। धार्मिक अवसर पर भी यह जानवर काम आता है। यह जानवर आसानी से बीमार भी नहीं पड़ता है। अतीत में परधान समुदाय की कुछ उपजातियां सुअर को व्यापक पैमाने पर पाला करती थीं। अब यह देखने को नहीं मिलता है। परधानों के अनेक देवता हैं। इनमें दूल्हादेव, दुल्कारिया देवी और नारायण देव को सुअर की बलि चढ़ाई जाती है। थोड़े-बहुत बदलाव के साथ यह परंपरा काफी हद तक एक सी रही है। अब यह कर्मकांड इक्का-दुक्का ही देखने को मिलता है।
आधुनिक परधान आदिवासियों से मिलने के बाद उनमें पुरानी संस्कृति की कोई झलक तलाश कर पाना मुश्किल है। शहरीकरण ने जिन समुदायों को सबसे अधिक प्रभावित किया है, उनमें परधान भी एक हैं। आधुनिक परधान युवा खेती, मजदूरी और ऐसे ही अन्य कामों में जुटे हैं। कुछ ही ऐसे लोग हैं, जिनमें अपनी संस्कृति और अपनी परंपरा के प्रति ललक दिखाई देती है। स्वास्थ्य और पोषण जैसे मुद्दे अन्य भारतीय समाजों की तरह उनकी भी प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं। राजनीतिक और सामाजिक कारक भी इस समुदाय की पहचान को प्रभावित कर रहे हैं। हमें कई ऐसे परधान मिले जो खुद को गोंड ही कहलवाना पसंद करते हैं। उन्हें अलग से परधान का संबोधन पसंद नहीं है। इस समुदाय के बीच जाकर कोई देखे तो वह महसूस करेगा कि आधुनिक दुनिया का विकास सूचक बदलाव कितना दिखावा है। ऐसे अध्ययन और समुदायों के बीच जाकर पड़ताल करने पर हमेशा विराट भारतीय संस्कृति के प्रति एक नया दृष्टिकोण बनता है। विविधताओं भरे इस देश में मंडला और डिंडोरी के जंगलों की अलग दुनिया है। यह दुनिया कस्बाई शहरीपन से दूर है। लेकिन अंध बदलाव की अंतर्धारा में बहुत कुछ लुप्त होता दिखाई दे रहा है। क्या विकासात्मक बदलाव के इस दौर में लोक संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखा जा सकेगा? यह सवाल हम सब के सामने है।