यह बिहार का पूर्णिया इलाका है। अररिया, किशनगंज और कटिहार साथ लगा है। पूरे इलाके में छोटी-बड़ी दर्जनों नदियां हैं। यूं समझ लीजिए कि यहां नदियों का जाल बिछा है। यही वजह थी कि कुछेक दशक पहले तक इलाके में मछुआरों की समृद्ध परंपरा हुआ करती थी। शाम ढलते ही मछुआरों के गीत हवा में तैरने लगते थे। उनकी लोक परंपराओं ने सीमांचल की संस्कृति को इंद्रधनुषी बना दिया था। उन्हें कोई मछुआरा कहता, तो कोई मल्लाह। ठीक-ठीक याद है कि वह 1990 का दशक था। मछली की कई देशी प्रजाति पूरे इलाके में खूब मिला करती थी। चूंकि वातावरण मछलियों के अनुकूल था, सो उनका प्रजनन भी अधिक होता था। उन्हीं मछलियों के कारोबार पर मल्लाह समाज का जीवन निर्भर था।
इस इलाके से कोसी की कई उपधाराएं गुजरती थीं। कई धाराएं अब भी हैं, लेकिन उनमें जल का प्रवाह पहले के अनुपात में कम हुआ है। ध्यान ही होगा कि छोटी नदियां यहां ‘धारा’ कहलाती हैं। दुर्भाग्य है कि किसानी के बदले हुए रूप ने इन ‘धाराओं’ को भी बदल दिया है। सीधी-सपाट बात यह है कि विकास के नए स्वरूप ने खेती-किसानी की परंपरा ही छिन्न-भिन्न कर दी है। छोटी नदियां या धाराओं का महत्व कम समझा जाने लगा है। विकल्प के तौर पर पहले नहर बनाए गए। उसमें भी समय पर पानी नहीं होने से समस्या बढ़ी। जब जमीन पर विकास का तौर-तरीका बदला तो पेड़-पौधे कुम हुए। बादल ने भी अपने रंग बदल लिए। बारिश कम होने लगी। इसका सीधा असर छोटी नदियों पर गया। अब नदियों में पानी का प्रवाह कमतर हो गया है। इन धाराओं से देशी नस्ल की मछलियां भी गायब हो चुकी हैं। साथ-साथ मल्लाह और उनकी संस्कृति भी। पहले यह समुदाय अपने मूल काम को छोड़कर खेती-बाड़ी से जुड़ा। फिर भी जरूरतें पूरी नहीं हुईं तो वह मजदूरी के लिए पलायन करने लगा है। इन मल्लाहों की लोक-परंपराएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। नदी तट पर मल्लाहों का रहन-सहन, उनके रीति-रिवाज, लोकगीत अब सुनाई व दिखाई नहीं देते हैं। पूर्णिया जिला का एक प्रखंड है। नाम है- श्रीनगर। इसके सिंघिया, संतनगर और चनका गांव में मछुआरों की कई बस्तियां हैं। अररिया जिले के औराही हिंगना इलाके में भी मछुआरों की स्थिति अच्छी नहीं है। यह इलाका फणीश्वर नाथ रेणु का है। उन्होंने अपने लेखन के जरिए इलाके की बोली-बानी और परंपराओं से पाठकों का खूब परिचय कराया है। देशी नस्ल की मछिलयों को भी उन्होंने अपनी कथाओं में जगह दी है। इसके बावजूद ऐसा क्या हुआ कि देखते ही देखते यहां के मछुआरे और मछलियां स्थानीय साहित्य और लोक परंपराओं से लुप्त होते गए। मछुआरों का एक वर्ग अब हाइब्रिड नस्ल वाली मछलियों की तरफ रुख कर चुका है, लेकिन ज्यादातर परंपरागत पेशे को छोड़ किसी दूसरे काम में लग चुके हैं।
रेणु कहते थे- ‘जूट, धान और माछ के बिना यह इलाका अधूरा है।’ एक समय ऐसा था, जब पूर्णिया जिले में ‘माछ’ का मतलब ‘जल अमृत’ होता था। अब पूरे इलाके से ‘जल अमृत’ लगभग गायब है। इससे मछुआरों का जीवन प्रभावित हुआ है। वह भी एक समय था, जब इनका जीवन उत्सवों से भरा था। वे जल में अधिक वक्त गुजारते थे और जल से जुड़े उत्सव मनाते थे। जिससे मछली का शिकार करते थे, उसकी पूजा पारंपरित तौर-तरीके से करते थे। छठ के अवसर पर तालाब, जलकर आदि की सफाई में का दायित्व वे उठाते थे। छठ पूजा में घाट सजाने का काम वे काफी सुंदर तरीके से करते आए हैं। फुर्सत के समय हारमोनियम और नाल से जो सुर वे लगाते थे, वह हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता था। कोसी की लोकप्रिय भगैत गायन शैली में मछुआरा समुदाय के महलदार जाति की विशेष पूछ होती है। अब समय बदल गया है। स्थानीय परंपराएं लुप्त हो रही हैं। अब बाहर की मछलियां यहां के बाजार में पैठ बना चुकी हैं। मछुआरे भी दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं। वे लोग जो बारीक नजर रखते हैं, इस बदलाव को देख रहे हैं। बिखरती लोक-परंपरा से वे आहत हैं।
कोसी की उपधारा ‘कारी कोसी’ इसी इलाकों से गुजरती है। वह भी एक जमाना था, जब इसके तट पर मल्लाहों की घनी बस्तियां होती थी। अब वह उजड़ चुकी हैं। लोग-बाग पलायन कर चुके हैं। जो बचे हैं, उन्होंने अपना पेशा बदल लिया है। कुछ ऐसे भी हैं जो बंगाल से हाइब्रिड मछलियां लाकर अपना रोजगार चला रहे हैं। इस क्रम में जो चीजें हमेशा के लिए लुप्त होती जा रही हैं, वह है- मल्लाह की लोक-परंपरा और उससे उपजे गीत। रेणु ने अपनी कहानी ‘एक आदिम रात्रि की महक’ में जिन बातों का जिक्र किया है, वे दृश्य अब नहीं दिखते। उन्होंने मछली को लेकर शानदार कथ्य प्रस्तुत किया है। इसे पढ़कर अंदाजा लगा सकते हैं कि कोसी अंचल में मछली का क्या महत्व है। इसी कहानी की पंक्ति है- इधर, 'हथिया-नच्छत्तर अच्छा 'झरा' था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है।...मछली? ...पानी में मांगुर मछलियों को देखकर करमा की देह अपने-आप बंध गई। वह सांस रोक कर चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियां छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा।...करमा क्या करे? ...उधर की मेंड़ से सटा कर एक 'छेंका' देकर पानी को उलीच दिया जाए तो..?...हैहै-हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ!...अरे, कांटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं। आठ मांगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियां!
रेणु के गांव औराही हिंगना के औराही यादव टोले में 50 घर मछुआरों के रह गए हैं। इनकी स्थिति का जायजा लेना जरूरी है, ताकि लोक-परंपराओं के संरक्षण की संभव कोशिश हो सके। वरना वे तो चुनावी राजनीति के मोहरे बनकर रह गए हैं। एक समय इलाके में तालाब की संख्या काफी थी, जिसे स्थानीय लोग पोखर भी कहते हैं। वह भी मछली पालन और मल्लाह के जीवन का एक आधार था। अब ज्यादातर तालाब अपने हाल पर रो रहे हैं। वह समय दूसरा था, जब उन तालाबों का स्थानीय संस्कृति से गहरा रिश्ता हुआ करता था। स्थानीय लोगों के दैनिक और धार्मिक जीवन में इसका विशेष महत्व था। अब स्थिति बदल गई है। तालाब बदहाल स्थिति में हैं। यह बात सच है कि इस बदलाव की एक धीमी प्रक्रिया रही है, जिसने यहां की लोक-संस्कृति को गहरे प्रभावित किया है। मछुआरों की संस्कृति सबसे अधिक प्रभावित हुई है। अब वह करीब-करीब लुप्त होने की कगार पर है।
पूर्णिया के सरसी इलाके में हमारी मुलाकात रामचंद्र सिंह से हुई। वे बताते हैं, “मिथिला और कोशी क्षेत्र के लिए नदी, पोखर और धारा जल-धरोहर है। अब जबकि इन तीनों का अस्तित्व ही मिट रहा है तो उसमें रहने वाले जल जीवों का लुप्त होना स्वाभाविक है।” वे आगे कहते हैं कि जब प्राकृतिक चीजें नष्ट होती हैं तो उससे जुड़ी ढेरों परंपराएं भी लुप्त हो जाती हैं। इस क्षेत्र में यही हुआ है। पहले जनस्रोतों को बचाना होगा। फिर जल-जीवों की रक्षा करनी होगी। उसके बाद ही लोक-परंपराओं का संरक्षण संभव है। क्या समाज और सरकार इसके लिए सजग है? यह जरूरी सवाल है। इसी सवाल के जवाब में मल्लाह और उनसे जुड़ी लोक-परंपराओं का वजूद निर्भर है।
अररिया के किसान इस्माइल कहते हैं, “जलस्रोतों के इर्द-गिर्द सभ्यता पनपती रही है। फिर संस्कृति का विकास हुआ। यहां भी कुछ ऐसी ही बात थी। लेकिन अपने जलस्रोतों के संरक्षण और संवर्द्धन के स्थान पर हमलोगों ने निहीत स्वार्थ में उसे नष्ट कर दिया है। इससे जलस्रोत और उसके जीव विलुप्त होते जा रहे हैं। उस पर निर्भर समाज अश्रय विहीन हो चुका है।” इस्माइल मानते हैं कि 20वीं शताब्दी के ढलते वर्षों में खेती-किसानी के ऐसे कई तरीके उभर आए, जिसने परंपरागत तौर-तरीके को करीब-करीब नष्ट कर दिया है। खेती में रसायन के उपयोग से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा है। इस बुरा प्रभाव जल जीव के साथ-साथ पक्षियों पर भी दिखता है। बूढ़े बुजुर्ग बताते हैं कि अब ऐसी पक्षियां खेत-पथार में नहीं दिखाई देती हैं, जो पहले घर के आंगन से लेकर तालाबों तक सहज ही दिखाई देती थीं। वे कहते हैं कि उन पक्षिओं का अपना महत्व था। सिंघिया गांव के मल्लाह राजेश महलदार ने कहा, "हम सबने मिलकर नदी और तालाब के जीवों को खत्म कर दिया है। प्राकृतिक संसाधनों और जलस्रोतों को नष्ट कर गंभीर स्थिति को जन्म दिया है। इसके परिणाम अब दिख रहे हैं। हमें प्राकृतिक संकट का सामना करना पड़ रहा है।" राजेश ने कहा कि पिछले दिनों जब बाढ़ आई तो नदी को अपना रास्ता ढूंढ़ना पड़ा। वह घरों और बस्तियों से होकर गुजरी। इससे पता चलता है कि हम उसके रास्ते को रोके बैठे हैं। पहले समाज जल-जंगल-जमीन का महत्व समझता था। जलस्रोत पूज्य माने जाते थे। अब वह बात नहीं है। समय अनुकूल नहीं रहा तो मल्लाहों को अपना पुश्तैनी पेशा छोड़ना पड़ा। तालाब की बंदोबस्ती में हुई अनियमितता और भ्रष्टाचार ने भी उन्हें हतोत्साहित ही किया है। वे रोजी-रोटी के लिए पलायन कर रहे हैं।
इस समय यहां मछली के बगैर भोजन अधूरा समझा जाता था। उसी इलाके की चर्चा करते हुए जोकीहाट के किसान सकलदेव महतो कहते हैं, "अब तो यहां मछलियों के प्रजनन काल के बारे में भी लोगों को जानकारी नहीं रह गई है। इसका कारण यह है कि हमने नई पीढ़ी को खेती के बारे में नहीं बताया।" वे आगे बोले, "पहले मल्लाह से इन सब बातों की जानकारी आम लोगों को होती थी। वे भी अब किसानी और मजदूरी करने लगे हैं। एक सहज ज्ञान लोगों से दूर हो गया है।” वे इस बात को नहीं जानते हैं कि जून और जुलाई के महीने में मछली का शिकार नहीं किया जाता है, क्योंकि यही वक्त होता है जब मछलियां बड़ी हो रही होती हैं।
मल्लाहों की साहित्य में खूब चर्चा है। बाबा नागार्जुन का एक लघु उपन्यास है- 'वरुण के बेटे।' नागार्जुन ने इस उपन्यास के जरिए मल्लाहों की जीवनशैली, उनके रहन सहन और सरोकारों की ओर झांकने का प्रयास किया है, जिससे उनकी रोजी-रोटी जुड़ी है। 'वरुण के बेटे' की पूरी कथा एक छोटे मल्लाह खुरखुन और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। कथा यह भी बताती है कि मल्लाहों के जीवन में लोक-संगीत ठीक उसी तरह कुलांचे मारता है जैसे- पानी में मछलियां। वह भी एक दौर था, जब मल्लाह अपनी थकान मिटाने के लिए लोकगीतों का सहारा लेते थे। उनके लिए गीत केवल मनोरंजन का जरिया नहीं था, बल्कि वह श्रमहारक भी था। नागार्जुन और ऱेणु ने अपने-अपने साहित्य में इन बातों की चर्चा की है। लेकिन, मल्लाहों के वे गीत अब सुनने को नहीं मिलते हैं। एक उदाहरण इस तरह है-
ऊपर टान, हुइ यो! बांए दबके, हुइ यो!
झाड़मझाड़, हुइ यो! पीछे हटके, हुइ यो!
झट झटक, हुइ यो! पैर पटक, हुइ यो!
साबित ख्याल, हुइ यो! जाल संभाल, हुइ यो!
रेहू ब्वारी, हुइ यो! मोदनी भुन्ना, हुइ यो!
नैनी भाकुर, हुइ यो! उजला सोना, हुइ यो!
लाल चांदी, हुइ यो! गंगा मइया, हुइ यो!
कमला मइया, हुइ यो! कोसी मइया, हुइ यो!
भारत माता, हुइ यो! गान्ही बाबा, हुइ यो!
बाह गरोखर, हुइ यो! बाह बहादुर, हुइ यो!
खैर, मछली का कारोबार हाथ से गया तो मल्लाहों ने मखाना की खेती को अपने जीने का जरिया बनाया। मल्लाह मखाना और पानी फल की खेती संयुक्त रूप से करते हैं। पिछले पांच सालों के दौरान खेती-किसानी को नजदीक से देखने पर एहसास हुआ कि जल-जमाव की समस्या से मल्लाह आसानी से निपट ही नहीं लेते, बल्कि उससे लाभ भी अर्जित कर सकते हैं। जिन इलाकों में जल-जमाव की समस्या बनी रहती है, वहां मखाना की खेती को वे अपनी आय का जरिया बना लेते हैं। बेशक यह काम जोखिम भरा है, लेकिन यही उनकी प्रकृति है। अमूमन मार्च व अप्रैल के महीने में मखाना की बोआई होती है। अगस्त आते-आते फसल परिपक्व हो जाता है। अभी कोशी के जलीय क्षेत्र में मखाना निकालने का काम चल रहा है। मखाना की एक फल में 25 से 30 दाने होते हैं। चूंकि परिपक्व फल डाली से फूटकर पानी के भीतर तल पर बैठ जाता है, सो मल्लाह मजदूर गोता लगाकर कृषि उपकरण ‘गांज’ के सहयोग से फल को बाहर निकालते हैं। उस फल को पहले सुखाया जाता है। फिर उसे कई हिस्सों में बांटकर भुनाई की जाती है, जिससे मखाने का लावा बाहर आता है। इस काम में मल्लाहों को महारथ हासिल है। लेकिन, रोजगार के आभाव में अन्य जाति के लोग भी इस काम में जुट गए हैं। यही वजह है कि मल्लाहों के लिए रोजगार का संकट यहां भी पैदा हो गया है।
कोशी क्षेत्र से मखाना दूर दिल्ली तक जाता है, लेकिन मल्लाहों को इसकी मोटी कमाई का बहुत छोटा हिस्सा मिलता है। मखाना सीमांचल की संस्कृति से गहरे जुड़ा है। शुभ कार्यों में इसका महत्व अधिक बढ़ जाता है। अतिथियों के स्वागत के लिए भी मखानों की माला का उपयोग यहां के लोग करते हैं। लेकिन, इसका दुखद पहलू यह है कि मखाने को उपजाने वाली जाति ‘मल्लाह’ को भेद-भाव से रू-ब-रू होना पड़ता है। समाज में विकास की हवा को खूब है, लेकिन मल्लाहों को लेकर समरस भाव कम ही दिखाई देते हैं। वहीं नदी तट पर बसने के कारण हर साल वे बाढ़ की तबाही का सामना करते हैं। इस समाज में घोर अशिक्षा है। अपना भरन-पोषण करने के लिए वे पलायन करते हैं या निम्नतम मजदूरी पर मखाने की खेती करते हैं। सच कहें तो डिजिटिल इंडिया के इस दौर में ग्रामीण भारत के सर्वांगिण विकास की बात यहां एकबारगी झूठी लगती है। सिंघिया गांव के राकेश साहनी बात सुनें- सरकार मछुवारा समाज के लिए कई योजनाएं चलाने की बात तो करती है, पर योजनाएं कहां चलती हैं! यह पता ही नहीं चलता है। इन मल्लाहों का जीवन बताता है कि गांव बदल चुका है। लोग-बाग इस बदलाव में अपने पेशे तक से दूर हो गए हैं। उससे जुड़ी संस्कृति भी बदल चुकी है। अब उसकी स्मृति ही शेष है। महानगरों में बैठे लोग मल्लाहों का जीवन किसी नदी में फंसी हुई नाव की तरह देखते हैं। सच्चाई यही है कि अभाव में फंसा मल्लाह रोजी-रोटी के लिए तेजी से पलायन कर रहा है। उनका पेशा बदल चुका है। इनकी लोक परंपराएं पीछे छूटती जा रही हैं। क्या वे परंपराएं लुप्त हो जाएंगी या इस बदलाव के बीच उसे जीवंत रूप में बचा पाएंगे? यह सवाल हम सब के बीच बना हुआ है।